मंगलवार, 11 अक्तूबर 2011

मोती


        मोती! बस यह शब्द कानों में पड़ते ही उस नन्हें से जीव की स्मृति ताजी हो जाती है जो कभी मुझे अपने एक दोस्त की तरह लगता था। उस समय मैं अपने पिताजी के साथ फर्रुखाबाद में रह रहा था, मेरी माँ, दादी और बहन जिला मैनपुरी के अन्तर्गत आने वाले गांव नौनेर में रह रहीं थीं। चूंकि मैं अपनी मां से दूर था, इसलिये मां का प्यार भी पिता से पाता था। उस समय मैं कक्षा चार में पढ़ रहा था, हम इस शहर में किराये के मकान में रहते थे, चूंकि हम दूसरी मंजिल पर रहते थे और छत पर हमारे सिवा और दूसरा कोई नहीं रहता था, अतः पिताजी ऑफिस जाते समय कमरे में ताला डाल देते थे, ताकि मैं कहीं खेलने चला जाऊं तो कमरा खुला न रहे और मैं अक्सर छत पर या बरामदे में बैठा रहता था।
चूंकि उस मकान में एक जामुन का पेड़ था अतः छत पर भी उसकी काफी छाया फैली रहती थी, अतः मैं ज्यादातर उसकी छाया में बैठकर पढ़ा करता। पिताजी मेरे लिये काफी सारी बाल पत्रिकायें ला देते थे, मैं ज्यादातर समय उन्हीं में उलझा रहता, मगर फिर भी कभी-कभी मेरा मन पत्रिकाओं से ऊब जाता था।
एक दिन पिताजी के साथ मैं उनके दोस्त गुप्ता जी के यहां गया। वहीं मुझे दिखा वह नन्हा सा जीव। मुझे लगा यह मेरा ऐसा दोस्त बन सकता है तो मेरे साथ रहकर मेरे अकेलेपन को दूर कर सके। वह एक सफेद चूहा था, गुप्ता जी के यहां दो चूहे पले हुये थे, उन्होंने बताया कि इनको यदि पिंजड़े से बाहर निकाल दो तब भी यह कहीं नहीं जाते। उन चूहों में से एक नाम हीरा था और दूसरे का मोती।
मैने पिताजी को अपने मन की बात बताई कि मैं इन चूहों में से एक को पालना चाहता हूँ। पिताजी पहले तो मना किया मगर मेरे जिद करने पर उन्हांेने मुझे आज्ञा दे दी, बस फिर क्या था मैं मोती नाम का एक सफेद चूहा घर ले आया। उसके लिये मैने एक पिंजरा खरीदा और विशेष रूप से पालतू सफेद चूहों के लिये बाजार में बिकने वाले छोटे-छोटे बिस्किट भी। मोती को यह बिस्किट बहुत पंसद थे।
अब तो मैं जब भी घर पर होता तो मोती को पिंजरे से निकाल कर अपने पास ही रखता और भी बिस्किट के लालच में मेरे पीछे-पीछे पूरी छत पर घूमा करता। जब मैं पढ़ने बैठता तो वह आकर मेरी किताब पर आ बैठता और तक तब न हटता जब तक उसे बिस्किट न मिलें। स्कूल जाते समय मैं मोती को पिंजरे में बंद कर देता था, और मेरे वापस आते ही मोती पिंजरे में चीं-चीं की करके बाहर निकालने को कहता। पिंजरे से बाहर निकलते ही वह मेरे आस-पास उछलकूद मचाना शुरू कर देता।
कभी-कभी ज बवह ज्यादा शरारत करता तो मैं उसे उठाकर अपनी पेंट की जेब में रख लेता और वह भी किसी बेजान वस्तु की तरह चुपचाप जेब में पड़ा रहता। अब पापा भी मोती के लिये मंूगफली, बिस्क्टि आदि अक्सर ले आते थे। सुबह के समय जब मैं सोकर जल्दी न उठता तो पिताजी मोती का पिंजरा खोल देते थे, और पिंजरे से बाहर आते ही मोती मेरे सिर से पैर तक दौड़ लगाना शुरू कर देता, मुझे तेजी से गुदगुदी होती और मजबूरन मुझे उठकर बैठना पड़ता।
एक दिन तो मोती ने हद ही कर दी। उस दिन सुबह से हल्की बारिश हो रही थी। बारिश के डर से मैने पूरा बैग ले जाने की बजाय कुछ कॉपी किताबें ही बैंक में रख लीं और स्कूल के लिये निकल गया। मगर स्कूल पहुंचकर मुझे पता चला कि गणित वाली शीला मैडम आज आ गई हैं, जबकि कल तक वह छुट्टी पर थीं। मुझे तो यही पता था कि मैडम आज नहीं आयेंगीं सो मैं गणित की कॉपी लेकर ही नहीं आया था। शीला मैडम के नाम से ही सभी बच्चे थर-थर कांपते थे। शीला मैडम आज कॉपी चेक करेंगीं और मैं तो कॉपी लाया नहीं, आज तो मेरा बैंड बजना तय है यह सोचकर मैं बेहद परेशान था। 
मैथ के पीरियड में शीला मैडम ने क्लास में प्रवेश किया। अभिवादन स्वीकार करने के बाद उन्होंने सभी छात्रों को बैठने का इशारा किया। मगर स्वयं नहीं बैठीं। हम जानते थे उनकी इस आदत को कि वह आते ही पढ़ाना शुरू कर देतीं हैं। उन्हांेने सभी छात्रों की ओर एक पैनी नजर डाली और गणित की कॉपी निकालने का आदेश दिया। मेरे चेहरे पर घबराहट के निशान साफ दिख रहे थे, शायद इसीलिये मैडम सीधी मेरी डेस्क के पास ही आकर खड़ीं हो गईं। ‘‘कॉपी क्यों नहीं निकालते?’’ मैडम ने कहा।
‘‘भूल आया मैम’’ मैने घिघियाते हुये जबाब दिया।
‘‘भूल आये! इस बैग में क्या भूसा भर रखा है?’’ मैडम ने मेरा बैग झकझोरते हुये उठाया और खोला मगर यह क्या! बैग खोलते ही मैडम एकदम स्पिंग की तरह उछलकर दूर जा खड़ीं हुईं। मेरा बैग उन्हांेने वहीं फेंक दिया।
‘‘क्या हुआ मैडम?’’ सभी छात्रों ने एक स्वर में पूछा।
मैडम के पसीना निकल आया था, गुस्से से तमतमाती हुई बोलीं, ‘‘अभी बतातीं हूं इस नालायक को, बैग में चूहे रखकर लाता है। क्या समझता है तू मैं चूहों से डरती हूँ क्या? चल यह बैग बंद करके उधर रख।‘‘ मैडम ने मुझे आज्ञा दी।
अब मेरी समझ में आया कि मैडक क्यों उछल गईं थीं। दरअसल मेरे बैंग में मोती छुप कर बैठा हुआ था। मुझे मोती की इस शरारत पर बहुत गुस्सा आया। मैडम की आज्ञा मान मैने बैग एक तरफ रख दिया।
‘‘बैंच पर खडे़ हो जाओ और हाथ ऊपर कर लो‘‘ मैडम ने मुझे सजा सुना दी। 
मैं चुपचाप बैंच पर हाथ ऊपर करके खड़ा हो गया। सभी छात्र मुुंह छुपाये हंस रहे थे। मैं नहीं जानता मेरी दशा पर या फिर मैडम के चूहे से डरने के कारण। मैं तो बस इतना जानता हूं कि मोती के चक्कर में मुझे उस दिन पूरे आधा घंटे बैंच पर खडे़ रहना पड़ा।
उस दिन मैं जैसे ही घर आया और बैग रखा मोती भागकर अपने आप पिंजड़े में जाकर बैठ गया, मैने भी आज उसे कुछ खाने को नहीं दिया और न ही मोती ने आज रोज की तरह चीं-चीं की आवाज करके खाना मांगा। शायद उसे भी अपनी भूल का अहसास हो गया था। कुछ ही दूर में मेरा गुस्सा शांत हो गया, मैने मोती को बाहर निकाला, बिस्किट खिलाये और छत पर घूमने के लिये छोड़ दिया।
मोती को मेरे घर आये एक माह हो गया था, अब मेरा समय उसके साथ बड़े मजे से कटता था। कल मम्मी भी गांव से आ गईं थीं क्यों कि पापा की तबियत कुछ गड़बड़ थी। उन्हें ठीक हुये अभी दो-चार दिन ही हुये होंगे कि एक दिन वह स्कूटर से कहीं जा रहे थे कि अचानक स्कूटर के फिसल जाने से उनके पैर में चोट लग गई, चोट ज्यादा नहीं थी सो दो-चार दिन में ठीक हो गई।
मगर न जाने क्या हो रहा था एक सप्ताह बाद ही मम्मी का पर्स कहीं खो गया, जिसमें पूरे पांच हजार रुपये थे। इस घटना के दो-तीन दिन बाद मेरी भी तबियत कुछ गड़बड़ हो गई। मेरा इलाज हुआ और मैं भी ठीक हो गया। मगर मेरी मम्मी ने अपने धार्मिक और अंधविश्वासी स्वभाव के चलते इन सब घटनाओं का कारण मोती को ठहराया और एलान कर दिया कि चूहा घर में पालना शुभ नहीं होता, अतः मोती अब यहां नहीं रहेगा।
अब भला मम्मी को कौन समझाये? मैं पापा से ही रोया गिड़गिड़ाया। पापा ने मम्मी को समझाया कि चूहा पालना अशुभ नहीं होता है, यह सब तो अंधविश्वास है। मगर मम्मी ने अपने आगे पापा की एक न सुनी और आखिर पापा ने भी कह दिया कि फुर्सत मिलते ही मोती को गुप्ता जी के यहां छोड़ आयेंगे।
अब मैं जब भी मोती की चीं-चीं सुनता अनायास ही मेरी आंखों से आंसू आ जाते। यही सोचकर कि न जाने किस दिन पापा मोती को छोड़ आयेंगे। कितनी आत्मीयता हो गई मुझे उस नन्हें से प्राणी से यह मेरे आसूं बताते थे। अब मोती भी न जाने क्या पहले जितनी शरारतें नहीं करता था। शायद उसे भी कुछ अहसास हो गया था। कल रविवार का दिन था, मुझे मालूम था कि कल पापा मोती को छोड़ने जायेंगे। शनिवार होने के कारण आज स्कूल में हाफ डे हो गया था। घर आकर मैने देखा मोती छत पर घूम रहा है, शायद स्कूल जाते वक्त मैं उसे पिंजड़े में बंद करना भूल गया था। मुझे देखकर मोती मेरे पास आ गया मैने उसके बिस्किट खिलाये और कुछ देर उसके साथ खेलता रहा। उसके बाद मैं खाना खाने चला गया, और खाना खाने के बाद छत पर बैठकर होमवर्क करने लगा, मोती वहीं छत पर इधर-उधर उछल-कूद करता रहा।
होम वर्क करने के बाद मैने मोती को बुलाया, मगर मोती नहीं मिला। कमरा, घर और पूरी छत छान मारी मगर मोती कहीं नहीं मिला। पापा के ऑफिस से आते ही मैने उन्हें भी मोती के खोने के बारे में बताया, मेरा रूंआसा चेहरा देखकर पापा के साथ-साथ मम्मी ने भी मोती को काफी देर खोजा। मगर अफसोस! मोती नहीं मिला, कभी नहीं मिला। 

बुधवार, 20 जुलाई 2011

कैसे रहें खुश?

             खुश रहने के लिये क्या आवश्यक है? पैसा! आज के युग में ज्यादातर लोग इस प्रश्न के उत्तर में यही कहेंगे। कुछ लोग प्रेम में भी खुशी तलाशते हैं। कुछ लोग ऐसे भी हैं जो कि रिश्तों में खुशी को पाना चाहते हैं। अलग-अलग लोगों की अलग-अलग विचारधारा है पर ये निश्चित है कि खुशी की तलाश सभी को है। सभी खुश रहना चाहते हैं, पर खुश रहें कैसे? यह प्रश्न हर उस व्यक्ति के सामने आता है जो जीवन की समस्याओं से दुःखी है और इनसे मुक्ति पाकर प्रसन्न रहना चाहता है, खुश रहना चाहता है। कल्पना कीजिये एक ऐसे व्यक्ति की जो हमेशा खुश रहता है, जिसके मस्तिष्क में किसी प्रकार की कोई चिन्ता नहीं है। यकीनन वह दुनियां का सबसे भाग्यशाली इंसान होगा।
हर व्यक्ति खुशी तलाशता है कोई पैसे में, कोई प्यार में पर यदि आप सोचते हैं कि ढेर सारा पैसा मिल जाने से कोई प्रसन्न रह सकता है तो यह एक भ्रम ही है। यदि पैसा खुशी दे सकता तो दुनिया के सारे अमीर लोग बहुत प्रसन्न रहते। पैसा होते हुये भी उन्हें ढेर सारी चिन्तायें घेरे रहतीं हैं, कहां रह पाते हैं वह खुश? न जाने कितना रूपया तो वह प्रसन्न रहने की कोशिष में खर्च कर देते हैं, पर याद रहे खुशी पैसे से खरीदी जाने वाली चीज नहीं है। खुशी तो हर इंसान के अंदर है बस उसे खोजने की आवश्यकता है। हाँ यदि आपको जीवन की मूलभूत आवश्यकताओं के लिये भी संघर्ष करना पड़ता है तक तो पैसा आपकी प्राथमिकता में अवश्य ही होगा।
एक शहर में एक आदमी रहता था, वह काफी अमीर था उसके घर से कुछ ही दूर एक किसान रहता था। अमीर आदमी के यहां कई नौकर-चाकर थे। हर चीज उसके पास उपलब्ध थी। फिर भी वह खुश नहीं रह पाता था। कभी व्यापार की चिन्ता, कभी बेटों की चिन्ता, कभी स्वास्थ्य की चिन्ता न जाने उस अमीर आदमी ने खुशी पाने की खातिर कितना रूपया बर्बाद किया, मगर उसे खुशी फिर भी नहीं मिली। एक बार वह अपनी कार से कहीं जाने के लिये निकला कि अचानक उसकी कार एक गांव में एक गरीब किसान के दरवाजे के सामने पहुंच कर खराब हो गई। अमीर आदमी ने अपने ड्राइवर को दूसरी कार लाने भेज दिया और तब तक स्वयं उस किसान के घास-फूस के छप्पर में जाकर बैठ गया। किसान उस समय लेटा था। उस अमीर आदमी को देखकर किसान ने उठकर उसे आदरपूर्वक घड़े का ठन्डा पानी पिलाया, पानी पीकर अमीर आदमी ने किसान से कहा, ‘‘भैया, तुम खेती छोड़कर कोई दूसरा कार्य क्यों नहीं करते, ताकि ज्यादा कमाई हो सके?‘‘
‘‘उससे क्या होगा सेठ जी?’’
‘‘क्या होगा! अरे तुम्हारे पास पैसा होगा तो तुम खुश रहोगे‘‘। सेठ जी ने कहा।
‘‘सेठ जी, क्या आप खुश हैं? आपके पास तो बहुत सारा पैसा है! सारी सुख-सुविधायें है? रही बात मेरी सो मैं तो अभी ही बहुत खुश हूँ‘‘। किसान ने नम्रता पूर्वक अमीर आदमी से कहा।
किसान की बात सुनकर अमीर आदमी चुप रह गया, किसान तो बिना पैसे के ही बहुत खुश है। यदि वह पैसे की चिन्ता शुरू कर दे तो शायद उसकी खुशी उससे दूर हो जायेगी। रह जायेगा तनाव, भागदौड़ और चिन्ता। वास्तव में प्रसन्नता तो हमारे अंदर ही है, बस उसे पहचानने की जरूरत है इसी संदर्भ में एक प्रचलित कहानी है कि एक लड़का इसलिये दुःखी था कि उसके पास जूते नहीं था, मगर उसकी सोच और दुःख उस समय एकदम खत्म हो गया जब उसने एक ऐसे लड़के को देखा जिसके पैर ही नहीं थे। कुल मिलाकर हर व्यक्ति खुश रहने की कला को अपना सकता है, चाहे वह अमीर हो अथवा गरीब। आइये खुश रहने की इस कला को हम जाने, समझें और सदा खुश रहें:-

मुस्कराते रहे:- खुश रहने की पहली सीढ़ी है कि आप हमेशा मुस्कराते रहें। मुस्कराने की यह आदत आपको आपके अंदर से बाहर ले आती है, मुस्कराने की इस कला के कारण बहुत से घाव शीघ्र भर जाते हैं। मुस्कराकर देखिये, आपकी जिन्दगी अपने आप मुस्कराने लगेगी।

नियमित व्यायाम करें:- नियमित व्यायाम व्यक्ति को आनन्ददायक अहसास से भर देता है। व्यायाम न केवल शारीरिक रूप से व्यक्ति को चुस्त-दुरुस्त रखता है बल्कि इससे मानसिक रूप से भी आदमी संतुष्ट रहता है। प्रातः थोड़ी देर के लिये कहीं हरी-भरी जगह पर टहलने निकल जाये। प्रकृति का साथ और सुबह का मनमोहक वातावरण पाकर मन खुशी से झूम उठता है।

पॉजिटिव सोचें:- मदर टेरेसा ने कहा था कि आज के समय में कोढ़ भी उतनी भयंकर बीमारी नहीं जितनी कि लोगों में अपने आपको गैर जरूरी समझने की बढ़ती सोच है। मुझे क्या? मेरी कौन सुनता है? मुझसे किसी को कोई मतलब ही नहीं‘‘। जैसे विचार आपके साथ-साथ परिवार के अन्य लोगों की खुशी में भी बाधक बनते हैं। अपने मस्तिष्क में निगेटिव विचारों को जगह न बनाने दें। हमेशा सकारात्मक सोचें। अपने लिये कुछ समय खाली बचाकर रखें, जब आप स्वयं अपने प्रभाव में आ जाते हैं तो आपको जीने का उद्देश्य प्राप्त हो जाता है और फिर आप सब-कुछ करने के लिये स्वतंत्र हो जाते हैं, खुलेपन और स्वतंत्रता का यह अहसास व्यक्ति को खुशी से भर देता है।

छोटी-छोटी चीजों में खुशी तलाशे:- अपने जीवन की उन छोटी-छोटी चीजों को पहचाने जो आपको खुशी देतीं हैं। जैसे सूरज को उगते हुये देखना, पंक्षियों की चहचहाट सुनना, सुबह-सुबह घास पर नंगे पैर चलना। इन सबके लिये जरूर वक्त निकालें क्यों कि खुशियां जीवन का हर पल प्रसन्नता से जीने पर निर्भर करतीं हैं।

खुशमिजाज लोगों से मिलें:- दरअसल जीवन में कई तरह के लोगों से वास्ता पड़ता है। कुछ लोग ऐसे भी होते हैं जो स्वयं तो कुछ नहीं ही करते हैं, और आपको भी हर कार्य के लिये आलोचनाओं से घेरे रहते हैं, इसलिये जरूरी है कि ऐसे लोगांे से मिलना जुलना हो सके तो बंद अथवा कम कर दें जो कि आपकी जिन्दगी को दुःखद बना देते हैं। केवल सकारात्मक सोच वाले लोगों को ही अपने संपर्क के दायरे में आने दें, क्यों कि ऐसे लोग दुःख के क्षणों में भी खुश रहना जानते हैं।

प्यार करें:- प्यार शब्द ही कितना मधुर है। प्यार करें से मतलब सिर्फ इतना ही नहीं है कि लड़का-लड़की ही एक दूसरे को प्यार करें। प्यार के तो कई रूप हैं, मां-बाप, भाई-बहन, दोस्तों का प्यार, पालतू जानवरों से प्यार आदि प्यार के अनेकों रूप हैं। आप जिसे प्यार करेंगे, वह भी आपको प्यार करेगा ही और इस प्रकार आपको खुशियों की अनोखी अनुभूति होगी। हां सबसे पहले अपने आप से प्यार करना कतई न भूलें।

रिश्तों में भी है खुशी:- इंसान जब-धरती पर आता है तो अकेला आता है। जैसे-जैसे वह बड़ा होता जाता है अनके रिश्ते जुड़ते चले जाते हैं। युवा होते-होते रिश्तों की एक लम्बी कतार खड़ी हो जाती है। जाने कितने रिश्ते बन जाते हैं और रिश्ते बनने का यह सिलसिला अनवरत चलता ही रहता है। जब रक्षा बंधन पर भाई बहन से मिलने आता है तो बहन खुशी से झूम उठती है, परदेश गया बेटा जब वापस आता है तो मां-बाप प्रसन्न हो जाते हैं, रिश्तों में असीमित खुशी है बस उसे महसूस करने की जरूरत है।

‘‘हर आरजू है छोटी और जिन्दगी बड़ी है।
वो सामने नजर के देखो खुशी खड़ी है।
आवाज दो बुला लो।।

गुरुवार, 7 अप्रैल 2011

बरगद बाबा (Banyan Sage)


          वे बरगद के पेड़, मेरे बचपनके साथी, मेरे दोस्त थे और मेरे जैसे न जाने कितने बच्चों की उनसे दोस्ती थी। गांव से दो किलोमीटर की दूरी पर स्थित थे वह बरगद के पेड़। उन पेड़ों की आपस में दूरी बहुत कम थी। अतः एक बडे़ क्षेत्र में उनकी छाया फैली रहती थी। चिड़ियों को आश्रय देते थे वे और बटोहियों को विश्राम करने के लिये ठंडी छांव। वहीं हम अपने जानवर चराने ले जाया करते थे। हमारे जानवर चरते रहते और हम सब बच्चे उन्हीं बरगद के पेड़ों की छांव में खेलते रहते। 
शाम होते-होते वहां साधु-संतो की भीड़ लग जाती। भगवान का भजन करते वह। गांव के लोग भी सत्संग भी शामिल हुआ करते थे। गांव में कोई झगड़ा हो जाये तो उन्हीं बरगद के पेड़ों की छांव तले चौपाल लगती, पंचायत होती और झगड़ा निपटाया जाता। अंधेरा होते-होते सत्संग समाप्त हो जाता मगर बरगद के पेड़ अपना कार्य करते रहते। रात में बंजारों का बसेरा स्थल बनते थे वे बरगद के पेड़।
सुबह सात बजे से गांव के मास्टर जी उन्हीं बरगद के पेड़ों के नीचे गांव के छोटे-छोटे बच्चों को पढ़ाया करते क्योंकि गांव में उस समय कोई पाठशाला नहीं थी। इसलिये मास्टरजी ने उन्हीं बरगद के पेड़ों को पाठशाला बना लिया था। मास्टरजी को तनख्वाह के नाम पर मिलता था आत्मसंतोष। शायद पुण्य भी। इस तरह शिक्षा भी देते थे वह बरगद के पेड़। यानी अपना सब कुछ देकर भूखों, भटकों, निराश्रितों को तरह-तरह से सुख देते थे। या यूं कहें कि अनगिनत जीवों का पोषण करते थे। हरे-भरे बढ़े-चढ़े थे वह बरगद के पेड़। शायद इन्हीं शदगुणों के कारण उनकी पूजा होती थी। वर अमावस्या के दिन गांव भर की सुहागिने वहां पूजा करतीं थीं। धागों से घिर जाते थे वे बड़े-बड़े बरगद के पेड़। बाबा बताते थे कि इन पेड़ों को उनके पिता ने बचपन में लगाया था। यानी मेरे बाबा से भी बहुत बड़े थे वह पेड़। इसीलिये तो हम बच्चे उन पेड़ों को ‘‘बरगद बाबा’’ कहते थे। अपने आश्रय में विभिन्न जीवों को सुख देने वाले वे बरगद के पेड़। जब उनकी डालियां हिलतीं तो मालूम देता जैसे वह बहुत आनन्दित हो रहे हों।
समय बीता मेरा बचपन न जाने कब चुपके से निकल गया। हम युवा हो गये। रोजगार की तलाश में मैं तथा मेरे साथी अलग-अलग शहरों में चले गये। तमाम कबायद के बाद और माता-पिता के आर्शीवाद से मेरा स्वयं का व्यवसाय जम गया। बचपन के ज्यादातर साथी अब अनजान से हो गये थे। कुछ से मिलना-जुलना तो ज्यादा नहीं, हां फोन पर बातचीत होती रहती। इस बीच मेरी शादी हुई। मां-बाप भी मेरे पास शहर आ गये थे। वक्त बिना रूके चलता रहा। मै दो बच्चों को पिता भी बन गया। इस व्यस्त दिनचर्या से समय निकालकर तीन-चार वर्ष में ही गांव जाना हो पाता था। मगर इस बार अत्यन्त व्यस्तता के कारण आठ वर्ष तक गांव नहीं जा पाया। दोनों बच्चे स्कूल से निकल कर कॉलेज में आ चुके थे। माता-पिता जीवन के अंतिम पड़ाव पर थे। एक दिन उन्होंने गांव देखने की इच्छा व्यक्त की। गांव और घर देखने से ज्यादा इच्छा मुझे उन बरगद के पेड़ों को देखने की थी। मां-बाप को लेकर अपनी कार द्वारा मैं गांव चल दिया। अब गांव की कच्ची पगडंडी पक्की सड़क में बदल चुके थी। उस सड़क पर कुछ ही दूर चलने के बाद वे बरगद के पेड़ दिखायी देने लगे। सड़क उन पेड़ों के बिल्कुल नजदीक से ही गुजरती थी। अतः मैने कार सड़क पर खड़ी कर दी और उन बरगद के पेड़ों को देखने लगा। पर आश्चय! कितना बदल गये थे, वे बरगद के पेड़।
टी0वी0, इण्टरनेट और कम्प्यूटर के उन्नत युग में बाजों, चीलों और गिद्धों को पनाह दे रहे थे वे बरगद के पेड़। सांडों और कुत्तों को अपनी छाया तले पालते और अपनी जड़ों में चमगादडों और उल्लुओं को आश्रय दे रहे थे वे पेड़। जिन पेड़ों के नीचे सत्संग होता था, जिन पेड़ों के नीचे न्याय होता था, जिन पेड़ों के नीचे बंजारों का रैन बसेरा होता था, जिनकी छांव तले शिक्षा दी जाती थी, उन्हीं बरगद के पेड़ों के नीचे अब गड़रियों तक को ठिकाना नहीं मिलता। अंधेरे में चोर-डाकुओं के पड़ाव होते हैं वहां। गांव की ओर जाने वाली सड़क पर राहगीरों को लूटा जाता है, उन्हीं बरगद के पेड़ों के नीचे और वे बरगद के पेड़ चुप-चाप सब-कुछ देखते रहते हैं। फिर भी तने खड़े हैं वे बरगद के पेड़।
मगर अब वे आनन्दित नहीं होते। जब उनकी डालियां हिलतीं हैं, पत्ते बजते हैं तो मालूम होता है कि बहुत दुःखी हैं वे बरगद के पेड़। खैर! दो दिन गांव में रूकने के बाद अपने मां-बाप के साथ मैं शहर वापस आ गया।
दस वर्ष बाद, अभी पिछले दिनांे उन बरगद के पेड़ों को देखने की इच्छा पुनः जागी। अकेला ही चल दिया गांव की ओर। लगभग छः घंटों के सफर के बाद मुख्य सड़क को छोड़कर गांव की ओर जाने वाले सम्पर्क मार्ग पर मेरी कार दौड़ रही थी, उस सड़क पर जो कभी एक कच्ची पगडंडी थी।
इक्का-दुक्का खेत ही बचे थे। ऊंची-ऊंची इमारतें बन गईं थीं। गाड़ी धीमी कर दी मगर जहां कभी वह बरगद के पेड़ हुआ करते थे, वहाँ वे बरगद के पेड़ अब नहीं थे, बल्कि एक विशाल क्षेत्र में फैली चीनी मिल थी। बाहर ट्रकों की कतारें लगीं थीं। मिल की बाहरी दीवार पर गमलों में रंग-बिरंगे देशी-विदेशी पौधे लगे थे। अचानक दो गमलों पर जाकर मेरी नजर ठहर गई। मैं आँखे फाड़े उन्हें देखता ही रह गया!

क्या इतने विशाल बरगद के पेड़ों के लिये मानवों की भीड़ में सिर्फ गमलों भर की जगह रह गई है? उन गमलों में बरगद के दो छोटे-छोटे बौनसाई थे। उन्हें ज्यादा फैलने की अनुमति नहीं है। उन्हें सिमटकर रहना है, सदा, जीवन पर्यन्त। मगर मैं अब भी समझ नहीं पा रहा हूँ कि मेरे प्रिय बरगद के वे पेड़ इतने छोटे क्यों हो गये? किससे पूंछूं? कौन बतायेगा? मेरे बचपन के साथी, मेरे दोस्त, कहाँ गये- वे बरगद के पेड़?

बुधवार, 23 मार्च 2011

कवि महोदय


मारे शहर में एक कवि महोदय है, वैसे एक नहीं अनेक हैं। लेकिन वह अपने आप में कुछ खास ही हैं, जिनकी महिमा का गुणगान मैं यहाँ करने जा रहा हूँ। जिसे भी उनसे एक बार मिलने का सुअवसर मिलता है धन्य-धन्य हो जाता है, क्यों कि धन्य होने के सिवाय उसके पास कोई चारा ही नहीं रहता। लोग उनसे बचकर निकलते हैं, कभी-कभी कोई फंसता है, फिर भला उसे बिना कविता सुनायें कैसे जाने दें। अब चाहे आपसे उनकी भेंट बीच सड़क पर ही क्यों न हो, कवि हैं तो कविता तो सुनायेंगे ही।
वैसे मुझे शेर से नहीं, शियार से नहीं, गोली से नहीं, बारूद से नहीं मतलब दुनियाँ में डरने वाली किसी भी वस्तु या प्राणी से यानि कि चूहे और काक्रोच तक से डर नहीं लगता। लेकिन कवि नाम के जन्तु से मैं बेहद घबराता हूँ। परन्तु दुःख इस बात का है कि अक्सर इस खतरनाक जन्तु से टकराता हूँ। अभी उस दुर्घटना को भूला ही कहाँ हूँ, ख्यालों के घोड़े पर सवार मैं कहीं जा रहा था। सहसा किसी ने घोड़े को लगाम लगाई। सामने देखा तो दुनियाँ की सर्वाधिक खतरनाक प्रजाति कवि की सूरत नजर आयी। मन किया सरपट भागूँ, मगर भागता कैसे ? उस विशालकाय आकृति ने मेरा बाजू बड़े प्यार से पकड़ रखा था। खैर! कोई बात नहीं, उन्होंने मेरा हाल पूछा अब हाल क्या बताता? हाल तो उन्हें देखते ही बेहाल हो चुका था। लेकिन उन्होंने मेरे चेहरे पर उभर आयी जबरदस्ती की मुस्कराहट को देखकर स्वयं ही अंदाजा लगा लिया कि मेरा हाल अच्छा ही है। लगे हाथ बिना पूछे ही उन्होंने अपना हाल भी बता डाला। 
हाल बताते-बताते उन्हें याद आ गई अपनी एक कविता की पंक्तियां और फिर कवितागान का अनवरत सिलसिला शुरू हो गया। कुछ ही देर में वहाँ बच्चों व राह चलते लोगों की भीड़ जमा हो गयी। मै नहीं बता सकता कि वह ध्यानमग्न होकर उनकी कविता सुन रहे थे या फिर मेरी दयनीय दशा पर हँस रहे थे। कुछ राह चलते लोग हमारी ओर देखते और मुस्कराकर निकल जाते। कविता पाठ करते-करते वह बड़े ही मस्त हो गये और मेरा बाजू छोड़ दिया। मैं पिंजरे से छूटे पंछी की भाँति उड़ निकला। दूसरे दिन कुछ जानने वालों के माध्यम से पता चला कि मेरे वहाँ से भागने के दो घंटे बाद तक वह अनवरत कविता पाठ करते रहे। जब ब्रेक लिया और मुझे वहाँ नहीं पाया तो बाकी की कवितायें किसी और निरीह प्राणी की तबियत दुरूस्त करने के लिये सुरक्षित कर वहाँ से चल दिये।


पिछले वर्ष सुनने को मिला कि उन्हें एक सर्प ने डस लिया है, जहर निष्क्रिय करने का इंजेक्शन तो डॉक्टर ने लगा दिया था। मगर उसने यह भी ताकीद की थी कि मरीज को रात में सोने न दिया जाये अन्यथा खतरा हो सकता है। कवि महोदय को जगाने का इंतजाम किया ‘‘ढाक’’ (थाली, ढोलक, मंजीरा आदि बजाकर सांप का जहर उतारने की विशेष कला) बजाने वालों ने।
उन्होंने ढाक बजानी शुरू कर दी, अचानक कवि महोदय को ढाक के देशी संगीत की धुन अपनी एक कविता से मेल खाती लगी। उन्होने ने अपनी कविता ढाक के संगीत के साथ गानी प्रारम्भ कर दी। सुबह जब इस शहर के लोगों के साथ-साथ मुझे भी इस घटना बारे में पता चला तो बड़ी सावधानी पूर्वक वहाँ पहुँचा। मगर नजारा अजीब था! कवि महोदय तेज स्वर में कविता पाठ कर रहे थे और ढाक बजाने वाले छहों व्यक्ति वहीं लुढ़के पड़े थे।
कवि महोदय की शादी का किस्सा भी कम रोचक नहीं है। न जाने कितनी कोशिषें की मगर कोई लड़की कवि लड़के से शादी करने को हर्गिज तैयार न थी। जैसे-तैसे उनके माता-पिता ने उनकी शादी दूर के एक शहर से तय कर दी। शायद लड़की को पता नहीं चल पाया था कि लड़का कवि है। शादी हो गई, दुल्हन घर आ गई। कवि महोदय ने कमरे में सजी-संवरी बैठी दुल्हन का घूँघट उठाया, बरबस ही उस स्वप्न सुन्दरी की प्रशंषा में दो पंक्तियां निकल गईं।
‘‘बहुत प्यारी कविता है यह’’, लजाती, शरमाती दुल्हन ने पंक्तियों की प्रशंषा कर दी। उस बेचारी को क्या मालूम था कि ऐसा करके वह कविता रूपी बारूद के ढेर में आग लगा रही है। अपनी कविता की प्रशंषा सुन कवि महोदय अभिभूत हो गये और लगे धड़ा-धड़ एक के बाद एक कवितायें सुनाने। अब यह तो पता नहीं कि उनकी महबूबा ने कितनी देर तक इस सुनामी को सहन किया। मगर यह मालूम है कि दूसरे दिन उनके घर वालों ने उन्हें संजे-संवरे पलंग पर अकेले बैठ कविता पाठ करते पाया, कमरे का दरवाजा खुला पड़ा था, उनकी महबूबा नदारद थी। 
इस घटना से बेचारे कवि महोदय बेहद दुःखी हुये। लेकिन शहर के कुछ बुद्धिजीवियों ने उन्हें समझाया कि अब तो आप की कवितायें और भी बेहतर होंगी, क्यों कि जब तक जिंदगी में दर्द न हो तब तक आवाज और रचना में मजा नहीं आता। 
खैर कुछ भी हो लेकिन यह सच है कि राष्ट्र की इन कवि रूपी महाशक्तियों का सदुपयोग किया जा सकता है। मैं आज ही भारत सरकार को पत्र लिखकर सुझाव दूँगा कि पाकिस्तानी आतंकवादियों से निपटने का बड़ा ही आसान सा उपाय है कि देश के सारे कवियों को सीमा पर भेज दिया जाये। फिर देखें कैसे निपटते हैं आतंकवादी इन महाशक्तियों से।
              वैसे अगर आपका भी कभी इस कवि रूपी से प्राणी से सामना हुया हो तो टिप्पणी करके बतायें।

शुक्रवार, 18 मार्च 2011

सावधान ! दुनिया के सबसे खतरनाक प्राणी से)

प्रिय मित्रों, आज मैं आपको इस दुनिया के सबसे खतरनाक प्राणी से परिचित करने जा रहा हूँ. वैसे तो इन्शान ने सभी प्राणियों को अपने बस में कर रखा है, मगर इस प्राणी ने इन्शान को अपने बस में कर रखा है. यह प्राणी दुनिया के अधिकतर घरों में पाया जाता है. और "पत्नी" के नाम से जाना जाता है. प्राचीन काळ में इसे "अबला" नाम से जाना जाता था. लेकिन वर्तमान में "अ" हट चुका है, और अब जो बचा है ................वह किसी भी भले मानुष की रूह कंपा देने के लिया काफी है.
     शादी से पूर्व यह प्राणी कन्या या लड़की के नाम से जाना जाता है. और हमारे अविवाहित नवयुवक भाइयों को विशेष रूप से प्रिय होता है. कुछ भाई नासमझी में इसे अपने घर में निवास  करने का आमंत्रण (वर्तमान समय में हमारे अंग्रेजीदां भाई इसे "प्रपोज"  करना कहते हैं) दे देतें हैं. और कभी-कभी जिनकी "शनि की साढ़े साती" चल रही होती है, उनका यह आमंत्रण स्वीकार भी कर लिया जाता है. और कभी-कभी ऐसा भी होता ही की इस प्राणी को घर में लाने के लिए कई लोग मिलकर जोर लागतें है. इस घटना (दुर्घटना) को जिसे "अरेंज मैरेज"  कहतें हैं. दरअसल उनमें शामिल लोग जो स्वयम इस प्राणी के साथ रहने के आदि होते हैं, उन्हें यह बर्दास्त नहीं होता की कोई नवयुवक बिना किसी भय के अपन जीवन व्यतीत करे. अथः वह तन-मन-धन से "पत्नी" नाम के इस प्राणी की जनसंख्या बढाने में अपना योगदान प्रदान करते हैं.
 यह प्राणी देखने में सुन्दर होता है और दुनिया के सभी भागों में जहाँ भी इंशानों की बस्ती है वहां पाया जाता है. बल प्राणी की निम्न विशेसतायें हैं :-
१- यह प्राणी अन्य लोंगो को (जिससे शादी हुई है, उसके अलावा) शादी के उपरांत भी प्यारा ही लगता है, शिर्फ़ "पति" नामक ओहदे से सम्मानित पुरुष को इसके वास्तविक स्वरूप के दर्शन होते हैं.
२- यह प्राणी अन्य लोंगों को ज्यादा परेशान नहीं करना सिर्फ एक ही व्यक्ति पर आपने प्रभाव का इस्तेमाल करता हैं. जिसे समाज में "पति" के नाम से जाना जाता है.
३- हमरे देश की सरकार लोंगो को "अभियक्ति की स्वतंत्रता" प्रदान करती है. मगर यह प्राणी "पति"  से उसकः यह मौलिक अधिकार भी छीन लेता है. और इस प्राणी के घर में आते ही "पति" नमक पुरुष किसी सुन्दर कन्या से किसी भी पराकार की अभियक्ति नहीं कर सकता.
४- दुनिया के बाकि सभी प्राणी अपने मालिक की बात मानते हैं., मगर यह एक ऐसा प्राणी है जो अपने मालिक को अपनी बात मानने पर मजबूर कर देता है.
        वैसे तो मुझे भी इस प्राणी को पालने की लिए मजबूर किया जा रहा है...............मगर आप की दुआओं से मुझे अभी तक इस प्राणी से मुक्ति मिले हुई है..............अतःह मैं अभी मौलिक अधिकार "अभियक्ति की स्वतंत्रता" प्रयोग कर रहा हूँ.    
     मुझे लगता है की "पत्नी:" नमक इस प्राणी को पालने की लिए नवयुकों को विशेष प्रकार का प्रशिषण दिया जाना चाइए...........मैं जल्द ही इस तरह का एक ट्रेनिंग शिविर लगाने जा रहा हूँ. जिस भाई को ट्रेनिंग लेनी हो वह तुंरत सम्पर्क करे. .................

शनिवार, 5 मार्च 2011

रोगों को दूर करता है गुड़


        गुड़ से सभी परिचित हैं। किसी जमाने में मिठास का एकमात्र साधन गुड़ ही था। जबसे चीनी का आविष्कार हुआ, हम गुड़ के महत्व को भूलते जा रहे हैं। जबकि गुड़ अनेकों रोगों की औषधि भी है। आज भी विभिन्न प्रकार के भोज्य पदार्थों में गुड़ का प्रयोग किया जाता है। सर्दियों में लोग गुड़ की चाय पीते हैं क्यों कि इस मौसम में गुड़ की चाय पीना काफी लाभदायक होता है। पूजा-अर्चना हवन आदि धार्मिक कार्यों में भी गुड़ का प्रयोग किया जाता है। कड़ी शारीरिक मेहनत करने वालों के लिये गुड़ एक अत्युत्तम आहार है। गुड़ के सेवन करने से थकावट दूर होती है, शरीर में स्फूर्ति आती है। गुड़ अपने विभिन्न चिकित्सकीय गुणों के कारण आज भी अपनी उपयोगिता को बरकरार रखे हुये है, आइये देखते हैं कि गुड़ किन-किन रोगों में लाभदायक है:-
  • एक वर्ष पुराना गुड़ रूचिवर्धक, अग्निवर्धक, लघु एवं वात पित्त नाशक होता है। ज्वर का नाश करने वाला एवं हृदय को बल देने वाला होता है।
  • गुड़ का सेवन करने से स्वास्थ्य उत्तम होता है। कड़ी मेहनत करने वाले व्यक्ति को थकान मिटाने के लिये गुड़ का शर्बत पीना चाहिये।
  • गुड़ में पोटैशियम होने के कारण यह हृदय रोगियों के लिये लाभकारी होता है, एवं कैल्शियम होने के कारण बच्चों के विकास में सहायक सिद्ध होता है।
  • नया गुड़ हल्का खारा, वीर्यवर्धक, बात कफ नाशक होता है मगर यह पित्त एवं रक्त के रोगियों के लिये हानिकारक होता है।
  • गुड़ को गुनगुन पानी में घोलकर उसमें शुद्ध घी की दो बूंदें डालकर सेवन करने से पेट के कृमि बाहर निकल जाते हैं। पेट साफ हो जाता है।
  • कृमि नाशक दवा लेने से पहले गुड़ का सेवन करने से कृमि मृत होकर मलद्वार से बाहर हो जाते हैं।
  • पुराने सूखे गुड़ को महीन पीसकर उसमें सोंठ को मिलाकर सूंघने से प्रमेह में लाभ होता है।
  • नीम की छाल को पानी में उबाल लें जब आठवां हिस्सा शेष बचे तो उसमें गुड़ मिलाकर रात में सेवन करने से मल के साथ कृमि बाहर निकल जाते हैं।
  • 20 ग्राम गुड़ एवं 10 ग्राम आँवला का चूर्ण मिलाकर सेवन करने से प्रमेह में लाभ होता है।
  • पुराने गुड़ का लड्डू बनाकर खाने से दुर्बलता दूर होती है, स्त्रियों में गर्भाशय की सफाई होकर नयी स्फूर्ति पैदा होती है।
  • गुड़ को तिल के क्वाथ में मिलाकर सेवन करने से बंद मासिक स्त्राव पुनः प्रारम्भ हो जाता है।
  • आधे सिर का दर्द होने पर 10 ग्राम गुड़ 5 ग्राम देशी घी में मिलाकर सूर्योदय से पहले एवं बाद में सेवन करने से दर्द में आराम मिलता है।
  • एक-एक दिन का गैप देकर आने वाले ज्वर में गुड़ और फिटकरी का चूर्ण मिलाकर छोटी गोलियां बनाकर खाने से पुराने से पुराना ज्वर भी ठीक हो जाता है। यह नुस्खा 95 प्रतिशत कामयाब है।
  • गुड़ में बेल का गूदा मिलाकर सेवन करने से अतिसार में लाभ होता है।
  • गुड़ एवं सरसों का तेल बराबर मात्रा में मिलाकर सेवन करने से श्वास एवं दमा में लाभ होता है।
  • गुड़ को गुनगुने दूध में मिलाकर दिन में दो बार पीने से मूत्र खुल कर आता है।
  • खाना खाने के बाद थोड़े से गुड़ का सेवन करने से खाना ठीक से पचता है।
  • गुड़ में हरड़ के चूर्ण को मिलाकर अग्नि प्रदीप्त होती है, जिससे पाचन शक्ति बढ़ती है, और भूख ठीक से लगती है।
  • गुड़ में अजमायन मिलाकर शल्य पट्टी बाँध देने से पांव अथवा किसी अन्य अंग में लगा कांटा, कांच, कंकण आदि बाहर निकल जाते हैं।
  • दो पके हुये केले लेकर इनके गूदे में गुड़, नमक या दही मिलाकर खाने से पेचिश दूर हो जाती है।
  • छोटा बच्चा यदि गलती से तम्बाकू खा ले तो विशाक्तता से बचने के लिये गुड़ अथवा गन्ने का रस बच्चे को पिलायें।


अपने हिन्दी फॉन्ट को आसानी से बदलिये यूनिकोड में


         वर्तमान समय में हिन्दी यूनिकोड का प्रयोग तेजी से बढ़ रहा है, इसके कई विशेष फायदे भी है जैसे कि यदि आपने परम्परागत हिन्दी फॉन्ट जैसे- कृतिदेव, चाणक्य, आगरा आदि में टाइप की हुई कोई ई मेल किसी को भेजें तो उसे पढ़ने में उस यूजर को निश्चित ही कठिनाई होगी जिसके कम्प्यूटर में यह फॉन्ट इंस्टाल नहीं होगें। इसलिये ज्यादातर इस तरह के ई0मेल अटैचमेन्ट भेजते समय हमें संबंधित फॉन्ट को अटैच करना पड़ता है, और फिर नये यूजर को फॉन्ट इंस्टाल करने की विधि बतानी पड़ती है सो अलग।
इस समस्या के निदान का सबसे अच्छा उपाय है यूनिकोड का प्रयोग लेकिन ऐसे यूजर जो काफी समय से कृतिदेव, चाणक्य जैसे फोन्टो का प्रयोग करते आ रहे हैं, उनके लिये इनमें हिन्दी टाइप करना यूनिकोड की अपेक्षा काफी आसान है। पर इन फॉन्ट में उपरोक्त समस्या तो आती ही है, इसके निदान का सरल उपाय है कि इन फॉन्ट में टाइप किये गये मैटर को यूनिकोड में कन्वर्ट कर लिया जाये।
क्यों कि यूनिकोड फॉन्ट आपके ई0मेल आदि के लिये तो उपयोगी है ही साथ ही ब्लाग पर इस तरह से आप आसानी से फॉन्ट परिवर्तन करके लिख सकते हैं। 
हिन्दी फॉन्ट को यूनिकोड में परिवर्तन करने की जुगाड़ खोजने के लिये मैने गूगल बाबा की शरण ली तो गई लिंक मिले जिनमें से कुछ मैने स्वयं प्रयोग किये और उनका परिणामणाम अच्छा रहा है, इनमें से कुछ लिंक यहाँ प्रस्तुत हैं, आशा है यह आपके काम आयेंगे।






अन्य फॉन्ट परिवर्तकों के लिये इन लिंकों का प्रयोग करें।

  • फॉण्ट को यूनीकोड में बदलिए

4C गांधी । आगरा । अमर । कुंडली । चाणक्य । डीवी अलंकार

सुरेख । योगेश । एचटी चाणक्य । आईटी हिन्दी । कृतिदेव । प्रीति

ऋचा । संस्कृत 99 । शिवाजी । श्रीलिपि । सुचिदेव । युवराज 
  • यूनीकोड को मनचाहे फॉण्ट में बदलिए

आगरा । चाणक्य । डीवी अलंकार । योगेश

एचटी चाणक्य । कृतिदेव । ऋचा । संस्कृत 99




आपको यह जानकारी कैसी लगी] इस बारे में अपनी राय जरूर दें।



गुरुवार, 3 मार्च 2011

दहेज हत्यायें: कितना सच? कितना झूठ?

              ‘‘दहेज न देने के कारण नवविवाहिता की हत्या‘‘ हर्षिता ने समाचार पत्र को खोला तो मोटी हेंडिग में यही समाचार दिख गया, समाचार पढ़कर एवं जली हुई युवती की तस्वीर छपी देखकर हर्षिता सिहर गई। उसके मन में बहू के जलने, छटपटाने और मौत के मुंह में समाने का दृष्य साकार हो उठा। वह सोचने लगी कि कहीं ऐसा भी उसके साथ भी न हो! नहीं-नहीं वह शादी ही नहीं करेगी। उसने मन नही मन सोचा।
               हर्षिता को अक्सर दहेज हत्याओं के कान्ड समाचार पत्रों और टेलीविजन पर दिख जाते, शायद ही कोई ऐसा सप्ताह होता जिसमें दो चार दहेज हत्याओं या दहेज के कारण आत्महत्या के समाचार टी0वी0 या न्यूज पेपर में न आते हों। इन समाचारों ने हर्षिता के मन में शादी के प्रति एक अजीब सा भय या यूँ कि कहें कि नफरत पैदा कर दी है। वह शादी के नाम से ही काँप जाती है।
आज लाखों लड़कियाँ शादी के सुनहरे ख्वाब देखने की बजाय ‘‘शादी’’ शब्द से ही डरतीं हैं, क्यों कि उनके मन में शादी के बाद दहेज को लेकर होने वाली हत्याओं, आत्महत्याओं की घटनाओं ने एक विशेष प्रकार का डर पैदा कर दिया है।
एक हद तो यह सही है कि आज के इस भौतिकतावादी युग में दहेज के प्रति सबका आकर्षण दिन पर दिन बढ़ता जा रहा है और लोग अपने बेटे की पढ़ाई से लेकर उसकी सर्विस लगने तक का सारा खर्चा दहेज के रूप में वसूल कर लेना चाहते हैं, और मनमाना दहेज न मिलने पर बेचारी निर्दोश बहू को अमानुषिक यातनायें देते हैं, उसे तंग करते हैं, और इस अत्याचार की पराकाष्ठा तो तब होती है जब इन यातनाओं का परिणाम बहू की आत्महत्या या हत्या के रूप में सामने आता है।
विभिन्न समाचार-पत्रों, टी0वी0 चैनलों आदि पर लगभग प्रतिदिन सैकड़ों समाचार दहेज की समस्या के इर्द-गिर्द आते हैं। दहेज की दिनों-दिन बढ़ती घटनाओं को देखकर ऐसा लगता है कि दहेज एक कभी न समाप्त होने वाली समस्या बन चुका है।
लेकिन इस संबंध में एक बात विचार करने लायक है कि जिन मौतों को हम दहेज के कारण हुईं हत्यायें या आत्महत्या मान लेते हैं क्या वह वास्तव में दहेज की बजह से हुई हैं। वे कहाँ तक सही हैं? क्या वह मनगढ़ंत तो नहीं है? शायद ज्यादातर लोग इस बारे में सोचने की कभी जरूरत ही नहीं समझते। बस लड़की की मौत ससुराल में अस्वाभाविक ढंग से हुई नहीं कि लोग इसे दहेज हत्या या दहेज उत्पीड़न के परिणामस्वरूप हुई आत्महत्या मान लेते हैं। और मीडिया के लोग समाचार को रोचक और धमाकेदार बनाने के चक्कर में नमक-मिर्च लगाकर ऐसा समाचार दिखाते हैं कि लोगों की सारी सहानुभूति स्वाभाविक रूप से पीड़ित लड़की और उसके परिवार की तरफ हो जाती है और लड़के वाले चारों ओर से अपराधी साबित हो जाते हैं। ज्यादातर मामलों में पुलिस भी छानबीन करने की ज्यादा तकलीफ न उठाकर सीधे ससुराल पक्ष के लोगों को जेल भेजकर अपने कर्तव्य की इतिश्री कर लेते हैं।
मगर दहेज के कारण होने वाली हत्याओं, आत्महत्याओं के बारे में अगर गहराई में जाकर छानबीन की जाये तो पता चलेगा कि दहेज हत्या के रूप में प्रचारित घटनाओं में आधी से अधिक मात्र दहेज के कारण नहीं होती। सभी मनुष्य क्रूर और दहेज लोभी तो नहीं होते। इस प्रकार की हत्याओं/आत्महत्याओं के पीछे अन्य बहुत से कारण होते हैं, जिन्हें दहेज विरोधी लहर की बजह से अनदेखा कर दिया जाता है।
अगर मामलों की तह में जाया जाये तो देखने में आता है कि इस प्रकार की अधिकांश घटनायें दहेज के कारण न होकर पारिवारिक एवं दाम्पत्य जीवन में आपसी सामन्जस्य न होने के कारण होती हैं। आजकल की आधुनिक विचारों वाली ज्यादातर लड़कियाँ अपने पति के साथ अलग रहने की इच्छुक होतीं हैं और पति के व्यवसाय आदि के कार्य से कहीं बाहर रहने पर वह भी अपने पति के साथ रहने की जिद करतीं हैं, कभी-कभी पति के लिये व्यवसाय में स्थायित्व न होने आदि जैसे अनेक कारणों के चलते अपनी पत्नी को दूसरे शहर में साथ रखना संभन नहीं होता। परिणामस्वरूप सास-ससुर, ननद आदि के साथ रह रही बूह की अक्सर इन सबसे तना-तनी हो जाती है, कभी-कभी यह तना-तनी झगड़े का रूप भी ले लेती है, पास-पड़ोस के लोग इस झगड़े को दहेज के कारण होने वाला झगड़ा ही समझते हैं, ऐसे में यदि किसी प्रकार की घटना हो जाये तो लोग दहेज का मामला ही मान लेते हैं।
आज के युवाओं को उन्मुक्त जीवन पसंद है, युवक-युवतियां एक साथ ही कालेज में पढ़ते, एक ही ऑफिस में कार्य करते हैं। इससे कभी-कभी उनमें प्रेम संबंध भी विकसित हो जाते हैं, और यह संबंध अक्सर इतने गहरे हो जाते हैं कि किन्हीं मजबूरियोंवश अन्यन्त्र शादी हो जाने पर भी लोग अपने इन संबंधों को बरकरार रखना चाहते हैं। ऐसे संबंधों से पति-पत्नी के बीच दरार बन जाती है। आये दिन झगड़े होने लगते हैं। कोई भी पति या पत्नी यह कभी पंसद नहीं करता कि उन दोनों के बीच कोई तीसरा आये, ऐसे संबंधों को लोग किसी भी कीमत पर स्वीकार नहीं करते। पर जब दोनों के बीच कोई तीसरा आ जाता है तो रोज-रोज झगड़ा मारपीट होने लगती है और फिर इस रोज-रोज के झगड़े से तंग आकर भावुक होकर लड़की आत्महत्या कर लेती है, समाज तुरन्त दहेज हत्या के रूप में इसे प्रचारित कर देता है।
अक्सर यह भी देखने में आता है कि अपनी लाड़ली की शादी तय करने के चक्कर लड़की वाले लड़के वालों से झूठे वायदों के पुल बांध देते हैं। जबकि उन्हें अच्छी तरह मालूम होता कि बाद में इन सब बादों को पूरा करने मुश्किल ही नहीं असंभव है। पर बेटी की शादी तय करने के चक्कर में वह इस पर ध्यान नहीं देते कि इसका परिणाम क्या होगा? जब नींव ही खोखली है तो इमारत कैसे टिकेगी, चार दिनों बाद धराशायी हो जायेगी। और होता भी यही है ससुराल वाले लड़की को उलाहने देते हैं मगर ध्यान रहे उसे यह उलाहने मारने के लिये कदापि नहीं दिये जाते केवल उसके परिवार को झूठा बताने के लिये ही दिये जाते हैं, और बहुत से समझदार परिवार शांन्त भी हो जाते हैं।
कभी-कभी हमें ऐसा भी देखने को मिलता है कि वर-वूध की पारिवारिक स्थिति में जमीन-आसमान का अन्तर है। वर तो सोने चांदी की दुकान का मालिक है, और वधू के घर में मूंगफली बेची जाती है। अभी भला ऐसी स्थिति में दाम्पत्य जीवन कहां तक निभ सकता है। बात-बात में उनमें झगड़ा होता है, कभी खान-पान को लेकर, कभी फैशन को लेकर तो कभी शिष्टाचार को लेकर। बात-बात पर लड़की को टोका जायेगा जिससे लड़की को यह महसूस होता है कि वह इस घर के लायक नहीं है। वह अन्दर ही अन्दर घुटने लगती और अधिक परेशान होने पर आत्महत्या का रास्ता अपनाती है। लोग समझते हैं कि गरीब माँ-बाप ने दहेज नही दिया इसी कारण बहू को मार डाला गया।
यदि इन घटनाओं पर विचार करें तो निष्कर्ष निकलता है कि इन सब घटनाओं में सबसे महत्वपूर्ण कारण होता है लड़कियों की तुनकमिजाजी। जरा सी बात हुई नहीं कि बेसिरपैर की बांते करने लगीं। जरा-जरा सी बात पर बिगड़ने लगीं। अपनी जिद पूरी न होने पर बिना आगे-पीछे सोचे आत्महत्या कर लेतीं हैं, और कुछ माता-पिता भी सोचते हैं कि क्यों न इस अवसर का लाभ उठाया जाये, और पुलिस में रिर्पोट लिखाकर दहेज में दिया सामान वापस ले लिया जाये, और इसी पैसे से दूसरी लड़की को निपटा दिया जाये।
इन सबके अलावा अन्य कारण भी होते हैं जो लड़की के लिये आत्महत्या का कारण बन जाते हैं। लेकिन एक बात तय है कि अगर लड़कियां जरा सी भी समझदारी से काम लें तो वह निश्चित रूप से अपने आप को ऐसी स्थिति से बचा सकती हैं। जरा-जरा सी बात पर लड़कियों को भावुक नहीं होना चाहिये अगर स्थिति खराब है तो अदालत के दरवाजे जाना चाहिये अगर पति या सास-ससुर ठीक रास्ते न आये ंतो तलाक भी लिया जा सकता है। ध्यान रखें जान तो अनमोल हे, इसे यूँ खोना नहीं है। सुसराल वालों को भी अपना दृष्टिकोण बदलना होगा। ध्यान रखें आपकी पुत्री भी किसी की बहू है जैसे आप अपनी बहू के साथ करते हैं वैसा ही व्यवहार आपकी पुत्री को भी ससुराल में मिल सकता है। आपको अपनी लोभी प्रवृत्ति को छोड़ना होगा।
ससुराल में होने वाली हत्याओं, आत्महत्यों के संबंध मंे प्रशासन, मीडिया और समाज को अपना दृष्टिकोण बदलना होगा। मीडिया को मात्र समाचार को चटपटा बनाने और टीआरपी बढ़ाने के चक्कर में किसी की इज्जत से खिलवाड़ नहीं करना चाहिये। ध्यान रखें ऐसी घटनाओं के पीछे एकमात्र दहेज ही नहीं और भी कारण हो सकते हैं। लड़कियों को भी तुनकमिजाजी छोड़नी होगी। जान अनमोल है आत्महत्या कोई खेल नहीं है।
आज औरतें एक से बढ़कर एक ऊचें पदों पर हैं, जीवन का दूसरा नाम संघर्ष हैं। डरे नहीं संघर्ष करें । ध्यान रखें - हम किसी से कम नहीं, हमसे है जमाना, जमाने से हम नहीं।

मंगलवार, 1 मार्च 2011

पहला कदम


 ब्लोगिग़ की दुनिया में यह मेरा पहला कदम हैं. वैसे तो "Indyaroks " "Ibibo" "Rediffiland" आदि पर एक दो ब्लॉग लिखे हैं. लेकिन पूरी तरह से यह सोच कर की ब्लॉग बनाना है, नही. 
     अपने विचारों को आप सब तक पहचाने के उद्देश्य से यह ब्लॉग बनाया है. विभिन्न पत्र- पत्रिकाओं और समाचार पत्रों में तो स्वतंत्र लेखन किया और कर रहा हूँ. पर इन्टरनेट के दुनिया यह मेरा पहला कदम है. आप सबसे मार्गदर्शन की आशा है.