गुरुवार, 24 अक्तूबर 2013

कल रात माँ के कमरे में आई एस आई वाले आये....

कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी के बयानो को देखकर आजकल ऐसा लगता है जैसे या तो उनका भाषण लिखने वाला भी कांग्रेस के भ्रष्टाचार से परेशान है और इसका बदला वह राहुल गांधी के लिये ऐसे ऊट-पटांग और बेसिरपैर के भाषण लिखकर ले रहा है या किसी कारणवश राहुल की मानसिक स्थिति डावांडोल हो गई है परिणामस्वरूप वह कब कहां क्या कह जायें उन्हें खुद नहीं मालूम होता।
कभी दादी, नानी और पापा की कहानियां सुनाते हैं। कभी उनके अच्छे!! कार्यों के बारे में बताते हैं। शायद राहुल गांधी के घर में कहानियों की किताबों पर प्रतिबन्ध रहा होगा परिणामस्वरूप उन्हें और कोई कहानी पढ़ने को ही नहीं मिली सिर्फ अपने परिवार की कहानियां ही मालूम हैं। उन्हें शायद यह नहीं मालूम कि इस देश में दादी, मम्मी, पापा के अलावा अदद सवा करब लोग और भी रहते हैं और उनमें से बहुत ऐसे हैं जिनकी कहानी में दादी, मम्मी और पापा की कहानी से कहीं ज्यादा दम है। 
खैर कहानी का क्या, दर्शक जब मूवी देखता है और उसमें एक अभिनेता सैकड़ों लोगों को अकेले मारता या कुछ और अजब-गजब करता है तो दर्शक जमकर ताली बजाते हैं और उसका आनन्द लेते हैं यह अच्छी तरह जानते हुये भी कि यह सब सिर्फ कल्पना है और इसका असलियत से कोई वास्ता नहीं। 
          कहानी तो चलती हैं। लोग मनोरंजन के लिये सही उसको देखते हैं। लेकिन कहानी सुनाते-सुनाते राहुल बाबा यह ही भूल गये कि कहानी का असल पात्रों से मेलजोल होना कभी-कभी गले की हड्डी बन जाता है।
आज राहुल ने अपने भाषण में मुजफ्फरनगर दंगो का जिक्र किया लेकिन शायद यह भूल गये कि यह दादी की सुनाई कहानी नहीं असलियत है और जो कुछ कहा वह इस सवा करब से भी अधिक के देश को शर्मशार करने और हर देशप्रेमी का खून खौलाने के लिये काफी है।
                  राहुल उवाच ‘‘एक इंटेलीजेंस का आदमी उनके कमरे में आया और उसने कहा, राहुल जी आपको क्या बताऊं मुजफ्फरनगर दंगो में 10-12 जो मुसलमान लड़के मारे गये हैं उनके परिवार वालों के संपर्क में आईएसआई है। वह उनसे बात करके उन्हें बरगला रही है। हम लोग अपनी ओर से पूरी कोशिष कर रहे हैं लड़कों को समझाने की कि इनकी बातों में मत आओ।‘‘
             राहुल इस बात को खुले मंच से देश-विदेश के मीडिया के सामने कह रहे हैं। उन्हे शर्म नहीं आती यह कहते हुये कि हमारे देश के अंदरूनी मामलों में कोई विदेशी खुफिया एजेंसी दखल दे रही है? भारत में सरकार नाम की कोई चीज बची है क्या? कभी किन्नरों के किसी शिविर में उनकी बिना मर्जी जाकर देखिये शायद लेने के देने पड़ जायेगे। क्या इस देश की सरकार किन्नरों से भी गयी बीती है?
               राहुल ने इस कहानी को देशी-विदेशी मीडिया के सामने कहा, क्या जैसे ही उन्हें इस बात का पता चला उन्होंने देश के प्रधानमंत्री को सूचना दी? क्या उन्होंने उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री को इस बारे में सूचना दी? क्या उन्होंने किसी सक्षम ऐजेंसी को इस बारे में सूचना दी? अगर राहुल की कहानी सही है तो क्या किसी देश के अंदरूनी मामलों में हद दर्जे की दखलंदाजी सामने आने के बाद भी राहुल गांधी ने उस पर क्या कार्रवाई करवाई? इतनी गोपनीय और संवदेनशील जानकारी इंटेलीजेंस आॅफिसर ने राहुल गांधी को क्यों दी? उनकी सरकार में वैधानिक हैसियत क्या है? 
                     या फिर देश की विश्व में इस तरह छीछा-लेदर करवाकर राहुल गांधी को लगता है कि उन्हें वोट मिल जायेंगे? 
        क्या कल राहुल गांधी यह भी कहेंगे कि एक आदमी मेरे कमरे में आया और उसने बताया कि मेरी मां को आईएसआई बरगलाने की कोशिष कर रही है और हम उन्हें समझा रहे हैं कि इसकी बातों में मत आओ???

रविवार, 6 अक्तूबर 2013

कभी देश और देशवासियों की स्थिति भी देख लीजिये नेताजी!!

          समाजवादी पार्टी के मुखिया मुलायम सिंह यादव ने अपने गृह जनपद इटावा में एक कार्यक्रम को संबोधित करते हुये कहा कि देश के मुसलमानों की दशा दलितों से भी खराब है। हमारे देश के प्रधानमंत्री कहते हैं देश के संसाधनों पर पहला हक मुसलमानों का है। मायावती कहतीं हैं दलितों की स्थिति बहुत खराब है। उन्हीं की पार्टी के सतीष मिश्रा कहते हैं कि ब्राह्म्णों को उनका हक सिर्फ बहुजन समाज पार्टी ने दिया है। शिवपाल सिंह एक सार्वजनिक कार्यक्रम में कहते हैं कि यादवों के हित के बारे में सपा से बढ़कर कोई दल सोच ही नहीं सकता। बिहार के मुख्यमंत्री का कहना है उनसे ज्यादा कोई मुसलमानों का हितैशी हो नहीं सकता।
आप देश के ज्यादातर राजनीतिक दलों के प्रमुखों या उनके नेताओं के बयान सुन लीजिये सभी को किसी न किसा वर्ग, किसी न किसी सम्प्रदाय की चिंता है। खासकर मुसलमानों के तो सब हितैशी हैं। 
मुलायम सिंह को यह मालूम है कि मुसलमानों की स्थिति दयनीय है मगर प्रदेशवासियों की क्या स्थिति है यह नहीं मालूम। अखिलेश यादव को यह मालूम है कि मुस्लिम बालिकायें गरीबी झेल रहीं हैं मगर यह नहीं मालूम कि प्रदेश की बालिकाओं की क्या स्थिति है? 
मुझे यह समझ नहीं आता कि अखिलेश यादव ‘‘उत्तर प्रदेश’’ के मुख्यमंत्री है या ‘‘मुसलमानों’’ अथवा किसी विशेष जाति सम्पद्राय के मुख्यमंत्री हैं। ’’दलितों से भी दयनीय स्थिति में हैं मुसलमान’’ यह कहने की बजाय मुलायम सिंह यह क्यों नहीं स्वीकारते, यह क्यों नहीं कहते कि प्रदेश वासियों की स्थिति दयनीय है? और यदि है तो उसके लिये वह कर क्या रहे हैं। 
लाल किले से देश को संबोधित करते हुये हमारे प्रधानमंत्री कहते हैं कि हमने मुसलमानों के लिये यह किया है, दलितों के लिये यह किया है, जाटों के लिये यह किया है.................लेकिन यह क्यों नहीं कहते कि हमने भारतीयों के लिये यह किया है। वह कहते हैं कि देश के संसाधनों पर पहला हक मुसलमानों का है! तो भारतीयों का कोई हक नहीं है???? प्रधानमंत्री जी आप भारत के प्रधानमंत्री है मुसलमानों के नहीं।
             किसी खास सम्प्रदाय, जाति, धर्म को दयनीय कैसे बताया जा सकता है? क्या सभी मुसलमान दयनीय है? क्या सभी दलित दयनीय है? क्या गरीबी यह देखकर आती है कि कोई मुसलमान है या दलित? 
              क्या मुलायम सिंह बतायेंगे कि आजम खां, नसीमुद्दीन सिद्दीकी, सलमान खुर्शीद, फारूक अब्दुल्ला, औवैसी और न जाने कितने और ........................दयनीय हैं.........या यह मुसलमान नहीं हैं? 
             दलितों की स्थिति दयनीय बताने वाली मायावतीं क्या यह बतायेंगीं कि वह कितनी दयनीय हैं या तमाम प्रशासनिक और उच्च पदों पर बैठे दलित कितने दयनीय हैं? 
            नेतागण किसी जाति सम्प्रदाय या धर्म को दयनीय क्यों बताते हैं और इसका क्या आधार है? दयनीय होने या गरीबी होने 
की स्थिति क्या किसी खास जाति धर्म की ही होती हैं। 
गरीब तो कोई भी हो सकता है, किसी भी जाति का हो सकता है, किसी भी धर्म का हो सकता है। मैने मुसलमानों के लिये यह किया, दलितों के लिये यह किया.....यह सब कहने की बजाय यह क्यों नहीं कहते कि मैने अपने देशवासियों के लिये यह किया, अपने प्रदेश वासियों के लिये यह किया। 
मुसलमानों की स्थिति बताने के बजाय प्रदेश वासियों की स्थिति पर गौर क्यों नहीं करते? या मुसलमान देश/प्रदेश के वासी नहीं हैं? या नेताओं को लगता है कि प्रदेश वासी कहने से मुसलमान उनसे प्रसन्न नहीं होंगे। यदि यही सोच है तो चुनाव में प्रदेश के मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार या देश के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार किस मुंह से कहते हैं? क्यों नहीं कहते कि मैं मुसलमानों के प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार हूं। मैं मुसलमानों के मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार हूं।
मुलायम सिंह जिंदाबाद के नारे लगाने वाले और उनकी पार्टी की सभाओं में झंडे लगाने से लेकर दरी बिछाने तक के काम करने वाला एक कार्यकर्ता जो मजदूरी करके गुजारा करता है, वह कई सालों से पार्टी की निस्वार्थ सेवा करता रहा है। आज भी जहां था वहीं है लेकिन उसी के पड़ोस का एक मुसलमान देखते-देखते कोठी और कारों का मालिक बन गया?? लेकिन उसके नेता जी के लिये मुसलमान दयनीय हैं !!!!!! 
आज पूरे देश की स्थिति दयनीय है, सभी हिन्दुस्तानियों की स्थिति दयनीय है, हमारी आर्थिक स्थिति की हालत दयनीय है, हमारी राजनीतिक स्थिति दयनीय है, हमारे नेताओं की मानसिक स्थिति दयनीय है, बेराजगारी से परेशान युवाओं की हालत दयनीय हैं, अपराधों से त्रस्त प्रदेश और देश की जनता की हालत दयनीय हैं। 
लेकिन नेता जी सिर्फ मुसलमानों की हालत दयनीय दिखायी देती है।
नेता जी आपकी अन्र्तआत्मा जानती है कि आप जो कह रहे हैं, कर रहे हैं वह गलत हैं। चाहे कांग्रेस हो, सपा हो, बसपा हो या कोई अन्य पार्टी सिर्फ मुसलमानों या दलितों से नहीं बनती। यह सब जानते हैं, लेकिन कुर्सी का लालच है!!!
  भारतीयों की स्थिति देखों, प्रदेश वासियों की स्थिति देखो और किसी धर्म, सम्प्रदाय की बात करने के बजाय देश और प्रदेश की बात करो।
सुधर जाओं नेताओं  क्यों कि तुम्हारें कर्मों/कुकर्मों  से यदि देश ही न बचा तो राजनीति कहां करोगे?????

बुधवार, 2 अक्तूबर 2013

परी

बाल मन कितना संवदेनशील होता है, कितना काल्पनिक होता है, कितनी मधुर स्मृतियां होतीं हैं बचपन की। लगता है काश लौट आये फिर वही समय या हम लौट जायें बीते समय में। लेकिन ऐसा कुछ भी तो नहीं हो पाता। अब हम जानते हैं कि यह सब महज एक कल्पना है। लेकिन बचपन! बचपन में सब कुछ हो सकता है। हाथी उड़ सकता है, मछलियां रेत पर सरपट दौड़ सकतीं हैं, परियां सारे दुःख समाप्त कर सकतीं हैं यहां तक कि छोटे-छोटे कामों के लिये वह आ सकतीं हैं। अब मेरे बुलाये से नहीं आती कोई परी, नहीं उड़ते हाथी तो बचपन क्या करे? बचपन तो कहता है परी रानी आओ, मेरे साथ खेलो, आओ ना।
बहुत शौक था मुझे बचपन में कहांनियां सुनने का लेकिन मेरे पिता जी को समय ही नहीं मिल पाता था कहांनियां सुनाने का, फिर भी मेरी इच्छा पूरी करने का प्रयास उन्हांेने हमेशा किया। बाल पत्रिकायें ला देते थे मेरे लिये। जिन्हें पढ़कर मैं कल्पनाओं के सागर में गोते लगता रहता। 
माना कि मां-बाप की गोद में सर रखकर कहानी सुनने की इच्छा पूरी नहीं होती थी, क्यों मां व मेरी दीदी गांव में रहतीं थीं, मैं पिताजी के पास शहर में रहकर पढ़ाई कर रहा था। कहानियों के संसार में रहकर लगता था कि अभी कोई परी आयेगी। मुझे गोद में बिठायेगी और सुनायेगी ढेरों कहानियां, मीठी-मीठी आवाज में। मैं सो जाऊंगा उसकी गोद में। 
अक्सर आती भी थी परी, सुनाती थी कहानी, लेकिन जब दरवाजा खटकता था और नींद खुलती थी तो पता चलता कि वह तो बस एक सपना था।
आज मैं तर्क करता हूं, लोगों को बताता हूं कि यह अंधविश्वास है, वह अंधविश्वास है। छात्र-छात्राओं को समझाता हूं कि मेहनत करो तभी सफलता मिलेगी। कोई परी नहीं आने वाली तुम्हारी मदद के लिये। आज मेरे लिये यह सब कोरी कल्पनायें हैं मगर बचपन में यही मेरा संसार था जिसमें मेरा ज्यादातर समय बीतता था।
मुझे याद है पिताजी ढेर सारी पत्रिकायें लाते थे। एक दिन बालहंस का परी कथा विशेषांक लाये, इसकी कहानियां मन को न जाने कितना गहराई में छू गईं।
मोनू अकेला रहता था, उसके मां-बाप दोनों आॅफिस चले जाते थे और फिर आंगन में खड़े नीम की डाल पर आ जाती थी एक नन्हीं परी। मोनू बुलाता था तो उतर आती थी पेड़ से फिर खेलती दिन भर, मोनू के साथ, पढ़ती थी। मोनू बहुत खुश रहता। जब मम्मी-पापा के आॅफिस से आने का समय होता तो परी टाटा करके चली जाती।
राजू तो गांव में रहता था, उसकी सौतेली मां उसे दिन भर पीटती थी। दिन भर वह बकरियां चराता था फिर भी पेट भर खाना तक नहीं मिलता था। उस दिन उसकी मां ने उसे बहुत मारा भूखे ही भगा दिया, बकरियां चराने के लिये। जंगल में आम के पेड़ के नीचे बैठकर राजू रोने लगा और फिर आ गई परी रानी। राजू को चुप कराया। जादू की छड़ी घुमाई बस खाना हाजिर, इतना स्वादिष्ट खाना तो राजू ने कभी नहीं खाया था। फिर तो रोज आने लगी परी रानी। राजू को पढ़ाने भी लगी। राजू प्रसन्न रहने लगा था। 
मैं भी तो रहता हूं अकेला। मम्मी गांव में रहतीं हैं, पापा आॅफिस चले जाते हैं। परी क्यों नहीं आती? शायद मेरे घर में नीम या आम का पेड़ नहीं है। मगर जामुन का पेड़ तो है। इसी पर आ जाये नन्हीं परी। पापा के आॅफिस जाने के बाद गर्मियों की भरी दोपहरी में मैने अपने आंगन में खड़े जामुन के वृक्ष की एक-एक डाल को देखा शायद किसी डाल पर पत्तों में छिपी बैठी हो नन्हीं परी। एक-एक डाल मेरी नजरों गुजर रही थी। अरे वह क्या! घने पत्तों में कोई है, परी! तब तक डाल हिली और पत्तों में से एक मोटा सा बंदर कूद कर भाग गया। 
परी नहीं दिखी कोई बात नहीं, दूसरे, तीसरे, चैथे, पांचवें अब तो हर दिन दोपहर में आंगन में जामुन के पेड़ की छाया में बैठककर जामुन की डाल पर परी को देखने की कोशिष करता मैं। मगर परी नहीं आयी। क्यों नहीं आयी? शायद मैं रोता नहीं हूं इसीलिये। हूं अब देखता हूं कैसे नहीं परी, न जाने कैसे मैं दुःखी हो गया और अगले दस मिनट में मेरा चेहरा आंसुओं से भीग चुका था। अब तो जरूर आयेगी परी।
तब तक दरवाजा खटका, जल्दी से आंसू पोंछे। पता नहीं कौन आ गया। दरवाजा खोला तो सामने मां खड़ी थी। छिपा लिया मां ने आंचल में मुझे, भूल गया मैं परी को, वैसे भी अब परी का क्या काम।