बुधवार, 2 अक्तूबर 2013

परी

बाल मन कितना संवदेनशील होता है, कितना काल्पनिक होता है, कितनी मधुर स्मृतियां होतीं हैं बचपन की। लगता है काश लौट आये फिर वही समय या हम लौट जायें बीते समय में। लेकिन ऐसा कुछ भी तो नहीं हो पाता। अब हम जानते हैं कि यह सब महज एक कल्पना है। लेकिन बचपन! बचपन में सब कुछ हो सकता है। हाथी उड़ सकता है, मछलियां रेत पर सरपट दौड़ सकतीं हैं, परियां सारे दुःख समाप्त कर सकतीं हैं यहां तक कि छोटे-छोटे कामों के लिये वह आ सकतीं हैं। अब मेरे बुलाये से नहीं आती कोई परी, नहीं उड़ते हाथी तो बचपन क्या करे? बचपन तो कहता है परी रानी आओ, मेरे साथ खेलो, आओ ना।
बहुत शौक था मुझे बचपन में कहांनियां सुनने का लेकिन मेरे पिता जी को समय ही नहीं मिल पाता था कहांनियां सुनाने का, फिर भी मेरी इच्छा पूरी करने का प्रयास उन्हांेने हमेशा किया। बाल पत्रिकायें ला देते थे मेरे लिये। जिन्हें पढ़कर मैं कल्पनाओं के सागर में गोते लगता रहता। 
माना कि मां-बाप की गोद में सर रखकर कहानी सुनने की इच्छा पूरी नहीं होती थी, क्यों मां व मेरी दीदी गांव में रहतीं थीं, मैं पिताजी के पास शहर में रहकर पढ़ाई कर रहा था। कहानियों के संसार में रहकर लगता था कि अभी कोई परी आयेगी। मुझे गोद में बिठायेगी और सुनायेगी ढेरों कहानियां, मीठी-मीठी आवाज में। मैं सो जाऊंगा उसकी गोद में। 
अक्सर आती भी थी परी, सुनाती थी कहानी, लेकिन जब दरवाजा खटकता था और नींद खुलती थी तो पता चलता कि वह तो बस एक सपना था।
आज मैं तर्क करता हूं, लोगों को बताता हूं कि यह अंधविश्वास है, वह अंधविश्वास है। छात्र-छात्राओं को समझाता हूं कि मेहनत करो तभी सफलता मिलेगी। कोई परी नहीं आने वाली तुम्हारी मदद के लिये। आज मेरे लिये यह सब कोरी कल्पनायें हैं मगर बचपन में यही मेरा संसार था जिसमें मेरा ज्यादातर समय बीतता था।
मुझे याद है पिताजी ढेर सारी पत्रिकायें लाते थे। एक दिन बालहंस का परी कथा विशेषांक लाये, इसकी कहानियां मन को न जाने कितना गहराई में छू गईं।
मोनू अकेला रहता था, उसके मां-बाप दोनों आॅफिस चले जाते थे और फिर आंगन में खड़े नीम की डाल पर आ जाती थी एक नन्हीं परी। मोनू बुलाता था तो उतर आती थी पेड़ से फिर खेलती दिन भर, मोनू के साथ, पढ़ती थी। मोनू बहुत खुश रहता। जब मम्मी-पापा के आॅफिस से आने का समय होता तो परी टाटा करके चली जाती।
राजू तो गांव में रहता था, उसकी सौतेली मां उसे दिन भर पीटती थी। दिन भर वह बकरियां चराता था फिर भी पेट भर खाना तक नहीं मिलता था। उस दिन उसकी मां ने उसे बहुत मारा भूखे ही भगा दिया, बकरियां चराने के लिये। जंगल में आम के पेड़ के नीचे बैठकर राजू रोने लगा और फिर आ गई परी रानी। राजू को चुप कराया। जादू की छड़ी घुमाई बस खाना हाजिर, इतना स्वादिष्ट खाना तो राजू ने कभी नहीं खाया था। फिर तो रोज आने लगी परी रानी। राजू को पढ़ाने भी लगी। राजू प्रसन्न रहने लगा था। 
मैं भी तो रहता हूं अकेला। मम्मी गांव में रहतीं हैं, पापा आॅफिस चले जाते हैं। परी क्यों नहीं आती? शायद मेरे घर में नीम या आम का पेड़ नहीं है। मगर जामुन का पेड़ तो है। इसी पर आ जाये नन्हीं परी। पापा के आॅफिस जाने के बाद गर्मियों की भरी दोपहरी में मैने अपने आंगन में खड़े जामुन के वृक्ष की एक-एक डाल को देखा शायद किसी डाल पर पत्तों में छिपी बैठी हो नन्हीं परी। एक-एक डाल मेरी नजरों गुजर रही थी। अरे वह क्या! घने पत्तों में कोई है, परी! तब तक डाल हिली और पत्तों में से एक मोटा सा बंदर कूद कर भाग गया। 
परी नहीं दिखी कोई बात नहीं, दूसरे, तीसरे, चैथे, पांचवें अब तो हर दिन दोपहर में आंगन में जामुन के पेड़ की छाया में बैठककर जामुन की डाल पर परी को देखने की कोशिष करता मैं। मगर परी नहीं आयी। क्यों नहीं आयी? शायद मैं रोता नहीं हूं इसीलिये। हूं अब देखता हूं कैसे नहीं परी, न जाने कैसे मैं दुःखी हो गया और अगले दस मिनट में मेरा चेहरा आंसुओं से भीग चुका था। अब तो जरूर आयेगी परी।
तब तक दरवाजा खटका, जल्दी से आंसू पोंछे। पता नहीं कौन आ गया। दरवाजा खोला तो सामने मां खड़ी थी। छिपा लिया मां ने आंचल में मुझे, भूल गया मैं परी को, वैसे भी अब परी का क्या काम।

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